
बड़ा ओहदा मिलने के बाद अधिकांश लोगों का नजरिया पैरेंट्स के प्रति बदल जाता है। दीपक ने तो बहुत हद तक अपने पाप को धो लिया। पर आज के युवा इस पाप को धोने के लिए क्या कर रहे हैं?
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@ शैलेश त्रिपाठी ‘शैल’
दीपक जबलपुर में रहता है। वहां पर एक नामी कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहा है। काफी दिनों से घर नहीं आने के कारण मां का दिल उससे मिलने जाने को बेचैन हो जाया करता।
वो प्रायः रामनिवास से समय निकालने को कहने लगीं।
“दीपक का कोई पता नहीं आया है”!
चलो, जबलपुर हो आते हैं।
सुरभि पढ़ी-लिखी नहीं थीं। रामनिवास भी किसान आदमी थे। पर बेटे को कुछ बनाकर उसकी जिंदगी बदल देना, उनकी पहली प्राथमिकता थी। अतः बच्चे को आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर भेजा।
शनिवार का दिन था। दोनों मां बाप बच्चे से मिलने किसी गौ के बछड़े के समान भागे जा रहे थे।
स्टेशन पहुंचकर दस बजे की गाड़ी से जबलपुर निकल गए। एक बजे तक गाड़ी वहां पहुंच गई।
दोनों तांगा पकड़कर ग्वारीघाट को निकल गए।
कॉलेज के मुख्यद्वार पर बैठे गार्ड से उनकी पहली मुलाकात हुई । बेटे का नाम बताया और बुलाने का आग्रह किया।
गार्ड अंदर गया और शीघ्र ही बाहर आ गया।
“वो कमरे में नहीं है”!
कमरे में नहीं है? कहां गया होगा?
दोनों पास के चबूतरे पे बेचैन होके बैठ गए।
दो-तीन घंटे बीत जाने पर दीपक अपनी खास मित्र रश्मि के साथ आया।
मां को देखकर उसके मुंह का पानी सूख गया।
वो अवाक रह गया।
“कहां गए थे ?…ये लड़की कौन है? … ने पूछा?
… पढ़ने गया था। ये रश्मि है। क्लास में पढ़ती है। “दीपक ने कहा।
मां की ममता बहुआयामी होती है। उसे इस बात का भान ही नहीं हुआ कि आज इतवार है और कॉलेज बंद रहता है।
थोड़ी देर में अंदर से लड़कों का हुजूम निकला। दीपक के साथ वाले थे। शायद सभी। रश्मि भी अब मां-बेटे के व्याख्यान को किसी बेकार फिल्म की भांति देख रही थी।
हुजूम के लड़कों ने दीपक को देखकर फब्तियां कसीं-ये लोग कौन हैं। रूम की मरम्मत करवाने के लिए लाया है क्या?
इस वाक्यांश ने तो जैसे आग में घी ही डाल गया।
रामविलास आपा खो बैठे
-बेटा! ये क्या है और क्या कह के चले गए ये लोग?…
दीपक-शांत
मां बेटे के लिए जिस भाव से आई थी, वो दिवाली के पटाखों की भांति फूट गए। आंखों से अश्रु प्रवाह करते हुए थैले से घर की बनाई मिठाइयां निकालीं। उसी चबूतरे पर रखकर वापस जाने लगीं।

गार्ड चुपचाप ये सब देख रहा था। वो रामनिवास को बहुत कुछ बताना चाहता था पर बताए कैसे?
लेकिन पड़ोस के झगड़े के समान ये बात दोनों को पता लग ही गई।
जिस संस्कारी बेटे को पढ़ने यहां भेजा था। वो नशे करता है। जुआ खेलता है। कई बिगड़ैल बच्चों का साथ भी है।…इस प्रकार की अंतहीन कहानी शुरू हो गई। मामला बिगड़ता देख रश्मि चुपचाप वहां से निकल गई।
सुरभि जो घर से बनाकर लाई थी। वो शायद दीपक को रश्मि के सामने अटपटा लगा था।
उसने जोर से बोला-ये क्या है। रश्मि के सामने ये फटा थैला निकालने की क्या आवश्यकता थी।
मेरी इज्जत है यहां। आप लोग हर बार आकर मेरे दोस्तों के सामने यहां मेरा मजाक बनाते हैं।
रामनिवास का जैसे दिल बैठ सा गया। बेटे से ये उम्मीद ना की थी। सुरभि को समझाए तो कैसे। बस यही उधेड़बुन में फंस गए।
जो भी बच्चे के साथ मिल के करने के ख्वाब देखे थे। वो सब काफूर हो गए। गुणवान से गुणहीन बनते बेटे को देखकर उनका हाल किसी बया चिड़िया के समान हो गया था। वो वहां पल भर भी नहीं रुकना चाहते थे। शीघ्र ही उन्होंने सुरभि को चलने का इशारा किया।
अब वाक युद्ध बढ़ने वाला था। अतः त्रिलोकी की भांति भविष्य को समझकर, आगे की राह ले लेना ही उचित समझा।
गार्ड से ये सब ना देखा गया। दोनों को ले जाके उसने एक चाय की दुकान पर बैठाया। धीरज बंधाया, पर जो भावनाओं का बांध संतान ने ही तोड़ दिया हो। वह कितना कोई बांधेगा।
सुरभि बस रोए जा रही थी। बस यही सोच थी कि ऐसी शिक्षा से अशिक्षित रहना ही ठीक था। जिसे पाके बच्चा मां-बाप को औरों से विभेद करने लगे।
क्या सोच के पढ़ने भेजा था और क्या पढ़ाई दीपक ने पढ़ ली। जो दीपक कल किसी और को उजाला देता, आज वो खुद में अंधकारमय था।
दोनों हारे हुए खिलाड़ी के समान थके घर लौट आए। रह-रहकर आंखों के सामने उस उपेक्षा का चित्र चित्रित हो रहा था।
कई दिन बीत गए।
टिम-टिमाती रात थी। आकाश तारों से थाल की भांति सजा हुआ था। गांव घर में लोगों का जमावड़ा अभी लगा हुआ था।
रामनिवास खाना खा के सोने जा रहे थे। सुरभि ने गाय की मांद में चारा डालकर टेटबा लगा दिया।
सहसा किसी के द्वार पर आने की आहट हुई!
चिर परिचित स्वर सुनाई पड़ा-“अम्मा”!
दीपक की आवाज थी। रश्मि द्वार की ओर भागी। किवाड़ खोले-“तुम अभी यहां?”
“हा अम्मा”!
आओ!
दीपक अंदर आ गया। रामनिवास भी मड़ैया से आ गए।
दोनों को सामने देखकर अब दीपक की आखों में पछतावे के आंसू थे।
वो अपनी दुरबुद्धिता के प्रदर्शन से आहत हो गया था। बिना रक्त की चोट बहुत घातक होती है। इसको ठीक करवाने के लिए शायद माता पिता से बड़ा वैद्य कहीं ना मिलता।
बेटे को इस तरह देख के सुरभि ने अन्तर्भाव समझ लिए थे।
अब फिर उसकी आखों में अश्रु थे। पर हां, प्रसन्नता के।
रामनिवास के अंदर जो जेठ की दुपहरी के समान तपन थी। इन अश्रुओं ने वर्षा का कार्य करके उसको माघ की ठंड के समान शीतल कर दिया।
दीपक का यह प्रेम अब मिशाल बन चुका था। चौबारों में चर्चाएं होने लगीं कि रामनिवास का लड़का महतारी-बाप के पीछे पढ़ाई छोड़ दिया,
दीपक घर के पीछे पढ़ना छोड़ दिया। आदि आदि…
वस्तुतः सभी दीपक की ही चर्चा कर रहे थे। बशर्ते, अपनी-अपनी बुद्धि की सीमाओं में रहकर।
अंततः वात्सल्य की मुरझा गई लता फिर हरी हो गई।

आज के परिवेश में बड़े ओहदे मिलने के बाद अधिकांश लोगों का नजरिया पैरेंट्स के प्रति बदल जाता है। दीपक ने तो बहुत हद तक अपने पाप को धो लिया। पर आज के युवा इस पाप को धोने के लिए क्या कर रहे हैं। क्योंकि कहीं ना कहीं ये “सर्वोपरि” का आचरण आज भी सबके अंदर है। ये उनको स्वतः से पूछना चाहिए।
यह जीवन का यथार्थ है कि बड़े होते होते बच्चे मां बाप से दूर हो ही जाते हैं , मां-बाप तो वही खड़े रह जाते हैं ।
बहुत सुंदर कहानी लिखी है आपने। 👌👌
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