आज भी भारतवर्ष में कितने ऐसे गरीब परिवार हैं, जिनके पास दूसरे बखत का खाना नहीं होता।आज भी मेलों में कितने बच्चे ऐसे मिल जाएंगे, जिनके पास पैसे नहीं होते। हम इस दुर्दशा के लिए क्या कर सकते हैं? ये हम सभी को सोचना चाहिए।
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@ पंडित शैलेश त्रिपाठी ‘शैल’
बच्चे मेला देखने चले गए थे। सिर्फ देखने गए थे। पैसे तो थे नहीं, पर आंखों में प्रसन्नता थी। मां ने अनुमति जो दे दी थी ।
सावित्री एक 34-35 वर्ष की महिला थी। पति देश की आजादी के लिए जेल में हैं। घर में दो बच्चे, एक बच्ची और तीन बकरियां थीं। यही उनका परिवार था।
बच्ची अभी क्वारा में है। हां, बच्चे थोड़े बड़े हैं। एक नौ साल का और दूसरा छह साल का।
सुबह से घर में रोना-धोना मचा हुआ था। बड़ा बच्चा मेला देखने की जिद पर अड़ा था। सावित्री उन्हें अकेले भेजने में डर रही थी। गांव के कुछ भले मानुष के कहने पर उसने दोनों को भेज दिया।
शाम हो रही थी। बच्चे आने वाले थे। सोचा, कुछ खाने को बना दूं। पर सब्जी-भाजी तो थी नहीं। हमेशा की तरह जौ की रोटी और नमक ही उनकी ब्यारी थी।
अम्मा
बच्चे आ गए होंगे!
सोचकर सावित्री द्वार को भागी। बाहर गजाधर बच्चों को लिए खड़ा था। बच्चे मां से लिपट गए। सावित्री अंदर आई। किवाड़ फिर से बंद कर दिए।
रसोई पर मिट्टी के तेल की डब्बी जल रही थी। उसकी लौ में एकाध कीड़े मर रहे थे। मानो सावित्री की गरीबी अब उनसे देखी ना जा रही हो तो भगवान के पास संदेश ले के जाएंगे।
दोनों बच्चों ने मां से खाना मंगा। सावित्री ने रोटी पर सरसों का तेल चुपड़कर नमक मिलाया और कुट्टू बनाकर बच्चों के हाथ में रख दिया। ताकि दोबारा ना मांग सकें क्योंकि अब कुछ था भी तो नहीं देने को।
बच्चे मां से मेले का वर्णन स्वर्गलोक की भांति करने लगे।
छोटे बच्चे ने मां से शिकायत भरे लहजे में कहा।
अम्मा, दादा को तुमने चामन्नी दी थी पर उसने कुछ नहीं खरीदा।
बड़ा लड़का बोला-अम्मा ये जलेबी के लिए कह रहा था। वो 40 पैसे की मिल रही थी। इतने मेरे पास नहीं थे।
अच्छा तो फिर क्या किया दोनों ने, सावित्री बोली।
अम्मा, मैंने पैसे बचा लिए ताकि अगले मेले में मैं, तुम, लल्ला, गुड़िया सभी जाएं।
बड़ा लड़का बोला।
वो यहीं नहीं रुका। उसने कहा-तब हमारे पास दो चामन्नी हो जाएंगी तो लल्ला को जलेबी भी खिला देंगे।अम्मा तुम भी खाना। हम सब खाएंगे।
अबोध बालक उम्र में तो ज्यादा बड़ा नहीं था, लेकिन उसके जवाब ने छोटे भाई और मां दोनों को प्रश्नविहीन कर दिया।
वो उम्र में छोटा तो था, लेकिन बड़े होने के नाते सारे बड़े काम बड़ी ही हिम्मत से कर रहा था।
लौकी की बेल के समान रात चढ़ने लगी। सावित्री ने दरी जमीन पे बिछाई। बगल में खटोलना रखा। उसमें बच्ची को लिटाया। और दरी में अपने दोनों बच्चों के साथ अंतहीन सुख सागर में समाने लगी।
डब्बी बुझाई और सोने की तैयारी की। बच्चे थके थे। शीघ्र ही बांस के पेड़ में शाम होने पर कौवों के समान अपने परिजनों को बुलाते हुए सो गए।
सावित्री ने भड़कूहर में गई मिट्टी की हंडिया में झांका!
अरे ये क्या
उसमें केवल आधे दिन का चावल है। दो घैला बगल में लुढ़के पड़े थे। उनमें अन्न होगा, ये कल्पना ही मुश्किल थी। सावित्री बिछौने पे आ गई। उसको नींद नहीं आ रही थी। कल बच्चे क्या खाएंगे? आज तो मेला भेज के उनको एक पहर की भूख बिसरा दी। कल क्या होगा?
हे विधाता!
दुनिया के सारे सुख फीके हैं, अगर घर में खाने को ही ना हो। वो कभी बच्चों के चेहरे को निहारती, कभी हंडिया को, जोकि अब जवाब दे चुकी थी और मानो कह रही थी कि मेरे अपने अंदर संचित अन्न से अभी तक सावित्री के बच्चे जी गए। अब ऊपर वाला जीआएगा।
अंततः इसी उधेड़बुन में भिनसार हो जाता है। कौवे बोलने लगते हैं। सावित्री उठकर बैठ जाती है। पर रात की स्थिति उसको फेल हुए विद्यार्थी के समान याद रहती है।
सुबह हुई। बच्चे खेलने भाग गए । दोपहर के पहले वो घर पहुंच जाते हैं।
अम्मा-अम्मा कहकर छोटा लड़का सावित्री की गोद में गिर जाता है। बड़ा रसोई में खाना ढूंढने घुस जाता है।
पलभर में बाहर आकर कहता है
-अम्मा खाना कहां रखा है?
सावित्री हड़बड़ा जाती है। बालक को कैसे बुझाए, उसको समझ नहीं आता।
बात बना के कहती है कि आज खीर बनाएंगे। इसलिए सब रात में खाएंगे। अभी खा लोगे तो खीर फिर कैसे खाओगे।

बच्चे क्या जानें कि घर में खाना ही नहीं है। सावित्री का खीर का बहाना उन्होंने कई बार सुना था, लेकिन उदारवादी दिलवालों की तरह वो इस प्रपंच को प्रायः भूल जाते थे।
संध्या हुई। बच्चे खुश थे ।आज उनको खीर जो खानी थी। सावित्री ने बकरी को दुह के दूध अर्बा में रख दिया।
विधि का विधान कहिए या दीनानाथ की दया। कमला सूपा भर चावल लिए उसके घर चली आ रही थी।
जिज्जी किवाड़ खोल
कौन है
मैं हूं कमला
आती हूं
सावित्री ने किवाड़ खोला
ये लो, अम्मा ने भिजवाया है। जामा बो दिया है। धान लगने पे उसको लगवाना। अभी ये लो। अधही बाद में ले लेना।
सावित्री की खुशी का ठिकाना ना था।
निश्चल मन से वो बार-बार भगवान का शुक्र गुजार कर रही थी।
आज सोते समय उसके चेहरे पर आत्मीय भाव थे। प्रसन्नता थी। बार-बार बच्चों को चूम रही थी।
अब उसके पास अन्न था। भले बदले में वो मजूरी करती थी। लेकिन, बच्चे अब भूके नहीं सोते थे।
आज भी भारतवर्ष में कितने ऐसे गरीब परिवार हैं, जिनके पास दूसरे बखत का खाना नहीं होता।आज भी मेलों में कितने बच्चे ऐसे मिल जाएंगे, जिनके पास पैसे नहीं होते। हम इस दुर्दशा के लिए क्या कर सकते हैं? ये हम सभी को सोचना चाहिए।
(लेखक पंडित खुशीलाल शर्मा गवर्नमेंट ऑटोनोमस आयुर्वेदिक कॉलेज, भोपाल में अध्ययनरत हैं)