senani.in
बच्चे पूरे दिल से मेहनत करते हैं। उनके ऊपर श्रेणी, प्रतियोगिता का बोझ देकर हमने उनको मानसिक बीमार कर दिया है। उन्हें खुला जीने दें। निर्णय लेने दें। उनके प्रति प्रेम का दृष्टिकोण अपनाएं, ना कि उसको अपने सम्मान के रूप में देखें।

@ पंडित शैलेश त्रिपाठी ‘शैल’
रामप्रकाश दद्दा जैतवारा स्टेशन में बाबू हैं। आज सुबह ही स्टेशन से घर लौटे थे। आज परिवार के बीच रहने का मौका मिलेगा। इस सोच में उनके पैर साइकिल के पैडलों पे बहुत जोर लगा रहे थे। धोती चैन में ना फंसे, इसलिए उसको बांध रखा था। दोपहर तक वो घर पहुंच जाते हैं। द्वार में बंधे बैल ने उनका स्वागत उपीछ कर किया। अभी तक की चौकीदारी के बदले पड़ोस के कुत्ते उनके पास ‘पेमेंट’ लेने के लिए आ चुके थे। गांव के बड़े-बुजुर्ग पास के नीम के चबूतरे पर बैठ गए और उनसे भारतीय रेल की दुर्दशा की शिकायत इस तरह की, जैसे वह रेल मंत्री हों।
इधर-उधर की बातें होते-होते शाम हो गई। आगंतुक अपने घर की ओर चल दिए। दद्दा नहा-धोकर बाहर के दहलान में खटिया डाल के बैठ गए।
दद्दा का लड़का गिरिधर जबलपुर में पढ़ता था। अभी हाल में उसने रियासत के दीवान पद के लिए पर्चा भरा था। उम्मीदवार बहुत थे, लेकिन पद कम। पेपर की भाषा भी अंग्रेजी थी। गिरिधर को दीवान बनाने के लिए दद्दा लालायित थे। वे उसकी पढ़ाई में एक पंजी की भी कमी नहीं करना चाहते थे। गिरिधर भी दद्दा के अरमानों पर पानी नहीं फेरना चाहते थे। अखाड़े के पहलवान की तरह पूरी ताकत से पढ़ाई की। मजनुओं की तरह रातभर जागते थे। पर हां, पढ़ने के लिए। किताबें छोड़कर किसी से मित्रता ना की थी।
परिणाम आया। गिरिधर इस बार भी असफल हो गए। शुरू के वर्षों में तो घर वालों का सहारा, सांत्वना मिलती रही। पर अब बात पलट चुकी थी। अब उनका पत्र आता और उसमें असफल की बात पढ़ते ही दद्दा बिफर पड़ते। राजेश्वरी समझाती थीं कि मेहनत करता है। अब नहीं पा रहा है तो उसका क्या कसूर।
माता का हृदय पुत्र के लिए हमेशा द्रवित हो जाता है। चाहे पिता कुछ बोले या कोई और। जननी अपने पुत्र की बुराइयां केवल खुद से कर सकती हैं, बाकी ये अधिकार आदि काल से उन्होंने किसी को नहीं दिया।

द्वार पर आवाज आई
दद्दा
हां, कौन
मैं, हरिराम!
बोलो हरिराम, क्या खबर लाए हो?
लाला का पत्र आया है।
लाओ
आओ बैठ जाओ।
नहीं दद्दा, अभी खाली नहीं हूं । कहकर। हरिराम राह पकड़ लेता है।
दद्दा बुद्धि के थानेदार थे। वो जानते थे कि पत्र में क्या होगा।
जा के पत्र राजेश्वरी को थमा दिया।
पढ़ो
किसका है ?
मैंने कहा, पढ़ो!
राजेश्वरी डरते हुए पत्र पढ़ने लगीं। उनको भय था कि कहीं फिर से फेल होने पर दद्दा गिरिधर को कुछ ऐसा-वैसा न बोल दें।।
पत्र में वही था, जिसकी उम्मीद थी। गिरिधर इस बार भी असफल हो चुके थे।
कुछ दिन बीत जाते हैं। गिरिधर पैसेंजर ट्रेन से घर आते हैं। दद्दा के पैर छूते हैं। पहली बार दद्दा कोई जवाब नहीं देते। वो अंदर चले जाते हैं। खाट पे बैठ के जूते उतारने लगते हैं। राजेश्वरी अंदर आती हैं। मां-बेटे का गणेश-पार्वती जैसा संवाद होता है।
गिरिधर थके मन से कहते हैं कि बस इम्तिहान में फेल होने के कारण दद्दा मुझसे नाराज हैं। मां बात बनाती हैं, पर गिरिधर किसी चुटकुले की भांति समझ जाते हैं।
ऐसे पैसा अगर मैं कहीं और फेंकता तो आज जमींदार होता। दद्दा चिल्लाए।
ऐसे ना बोलिए। लड़के पर क्या प्रभाव पड़ेगा, राजेश्वरी चिल्लाईं।
तो पड़ने दो। इतनी परवाह होती तो असफल होके ना लौट आता।
मेरी नाक ले ली ! दद्दा बोले
अभी तक तो ठीक था, लेकिन अब राजेश्वरी से नहीं सहा गया। उन्होंने कह दिया कि इतनी ही चिंता थी तो पढ़ाते ही नहीं। और अब एक शब्द मत बोलना लाला को।
राजेश्वरी अब दुर्गा बनती जा रही थीं। कुएं में गिरे बछड़े को बचाती गाय के समान राजेश्वरी गिरिधर की ओर लपकीं और उसको हृदय से लगा लिया। गिरिधर की आंखों में आंसू थे। अभी तक वो ये सोच रहे थे कि घर में जाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन, यहां पाशे पांडवों के चौपड़ के समान उल्टे ही पड़ रहे थे।
बात बिगड़ रही थी। गिरिधर बड़े संतोषमय लहजे में बोले-दद्दा मैं अब ये घर छोड़ रहा हूं। अब यहां कभी नहीं आऊंगा !
कहकर वो चले गए।

मां बेहाल होने लगीं। ये इम्तिहान उनके बच्चे की नौकरी का था, जोकि अब घर की दशा का इम्तिहान बनता जा रहा था।
दद्दा बेटे को इस तरह जाते देखकर किसी नारी के समान अश्रु वर्षा करने लगे। उनको अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था।
वापस मां और दद्दा ने बेटे को मनाया। उसको घर ले आए।
प्रेम की सूखती जा रही जड़ फिर हरी हो गई।
बच्चे पूरे दिल से मेहनत करते हैं। उनके ऊपर श्रेणी, प्रतियोगिता का बोझ देकर हमने उनको मानसिक बीमार कर दिया है। उन्हें खुला जीने दें। निर्णय लेने दें। उनके प्रति प्रेम का दृष्टिकोण अपनाएं, ना कि उसको अपने सम्मान के रूप में देखें।
(लेखक पंडित खुशीलाल शर्मा गवर्नमेंट ऑटोनोमस आयुर्वेदिक कॉलेज, भोपाल में अध्ययनरत हैं)